नेपाल में राजशाही और हिंदू राष्ट्र की मांग को लेकर हो रहे आंदोलन

काठमांडू: नेपाल के पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह जब नौ मार्च को काठमांडू लौटे तो हज़ारों लोग उनके स्वागत के लिए एयरपोर्ट पर पहुँचे. प्रदूषण की धुंध में घिरी नेपाल की राजधानी काठमांडू में आजकल राजशाही बनाम संघवाद पर चर्चा तेज़ है.
एक ओर जहाँ राजशाही के समर्थन में कुछ लोग आंदोलन कर रहे हैं, वहीं बड़ा तबका ऐसा भी है, जो सरकार से निराश तो है लेकिन वो राजशाही की वापसी के पक्ष में नहीं.
मंगलवार आठ अप्रैल को राजशाही के समर्थन में रैली के लिए राजधानी के बल्खू इलाक़े में हाथ में नेपाली झंडा और पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह की तस्वीर लिए लोगों की भीड़ जमा हुई.
सड़क के एक तरफ़ प्रदर्शनकारियों की भीड़ थी, तो दूसरी तरफ़ ट्रैफ़िक सामान्य रफ़्तार से गुज़र रहा था. राजशाही ख़त्म कर साल 2008 में लोकतांत्रिक गणराज्य बने नेपाल को हिंदू राष्ट्र बनाने और राजशाही की वापसी के लिए आवाज़ें उठीं हैं.
हालाँकि आंदोलन से जुड़ी रैलियों के बाहर इसका असर बहुत ज़्यादा नज़र नहीं आता. नेपाल के अन्य इलाक़ों में भी राजशाही समर्थक आंदोलन सीमित ही है और कोई व्यापक विरोध नहीं हुआ है.
नेपाल के इतिहास में अधिकतर समय राज परिवार का शासन रहा. 1846 से 1951 तक राणा परिवार के प्रधानमंत्रियों की सत्ता रही और शाही परिवार प्रतीकात्मक भूमिका तक सीमित रहा.
देश में लोकतंत्र स्थापित करने का पहला प्रयास 1951 में हुआ, जब नेपाली कांग्रेस के लोकतंत्र समर्थक आंदोलन के कारण राजा त्रिभुवन की मदद से राणा परिवार को सत्ता से हटा दिया गया.
1959 में नेपाल में पहले चुनाव हुए और बीपी कोइराला देश के पहले प्रधानमंत्री बने. नेपाल में लोकतंत्र का ये प्रयोग ज़्यादा दिन नहीं चल सका.
1960 में त्रिभुवन के बेटे महेंद्र बीर विक्रम शाह देव ने सत्ता पर क़ब्ज़ा करते हुए सभी लोकतांत्रिक संस्थानों को भंग कर दिया. 1960 से 1990 तक नेपाल में राजा का सीधा शासन रहा और देश में पंचायत व्यवस्था प्रभावी रही. इस दौरान राजनीतिक दल प्रतिबंधित रहे.
जन आंदोलन के बाद 1990 में राजशाही को संवैधानिक रूप दिया गया. हालाँकि लोकतंत्र की स्थापना के लिए प्रयास होते रहे. माओवादी आंदोलन के दौरान 1990 से 2006 तक गृहयुद्ध जैसे हालात रहे. हज़ारों लोगों की जानें गईं.